What is Uniform Civil Code? (क्या है यूनिफॉर्म सिविल कोड?)
Uniform Civil Code (यूनिफॉर्म सिविल कोड) का संबंध सिविल मामलों में कानून की एकरूपता से है। देश के हर व्यक्ति के लिए सिविल मामलों में एक समान कानून यूनिफॉर्म सिविल कोड (UCC) की मूल भावना है। इसमें धर्म, संप्रदाय, जेंडर के आधार पर भेदभाव की कोई गुंजाइश नहीं होती है। इस कोड के तहत देश के सभी नागरिकों पर विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, पैतृक संपत्तियों में हिस्सा, गोद लेने जैसे मसलों के लिए एक ही कानून होते हैं। समान नागरिक संहिता होने पर धर्म के आधार पर कोई छूट नहीं मिलती।
भारत में फिलहाल धर्म के आधार पर इन मसलों पर अलग अलग कानून हैं। हिंदुओं, मुस्लिमों और ईसाइयों के लिए भारत में संपत्ति, विवाह और तलाक के कानून अलग अलग हैं। अलग अलग धर्मों के लोग अपने पर्सनल लॉ का पालन करते हैं। मुस्लिम, ईसाई और पारसियों का अपना अपना पर्सनल लॉ है। हिंदू सिविल लॉ के तहत हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध आते हैं।
यूनिफॉर्म सिविल कोड पर क्या कहता है संविधान (What dose the constitution say on Uniform Civil Code)
संविधान के भाग चार में Uniform Civil Code (यूनिफॉर्म सिविल कोड) का जिक्र किया गया है। संविधान के भाग 4 में अनु्छेद 36 (Artical 36) से लेकर 51 तक राज्य के नीति निर्देशक तत्व (Directive Principal of State Policy) को शामिल किया गया है। इसी हिस्से के अनुच्छेद 44 (Artical 44) में नागरिकों के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड (UCC) का प्रावधान है। इसमें कहा गया है “राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।”
अब सवाल उठता है कि जब संविधान में इसका जिक्र है ही, तो आजादी के बाद इस पर कोई कानून क्यों नहीं बना। दरअसल संविधान के भाग 3 में देश के हर नागरिक के लिए मूल अधिकार की व्यवस्था की गई है, जिसे लागू करना सरकार के लिए बाध्यकारी हैं।
वहीं संविधान के भाग 4 में जिन नीति निर्देशक तत्वों का जिक्र किया गया है, उसे लागू करना सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं है। दरअसल इस हिस्से में शामिल प्रावधान लोकतंत्र के आदर्श हैं, जिसे हासिल करने की दिशा में हर सरकार को बढ़ना चाहिए। बाध्यकारी नहीं होने की वजह से ही देश में अब तक यूनिफॉर्म सिविल कोड (UCC) नहीं बन पाया है।
संविधान सभा में भी हुई थी चर्चा
संविधान सभा में इस पर व्यापक बहस हुई थी। कुछ सदस्य इसे मूल अधिकार में रखने के पक्ष में भी थे। संविधान सभा में 23 नवंबर, 1948 को इस पर विस्तार से बहस हुई। मोहम्मद इस्माइल, नज़ीरुद्दीन अहमद, महबूब अली बेग साहिब बहादुर, हुसैन इमाम ने समान नागरिक संहिता (UCC) से जुड़े अनुच्छेद (Artical) में संशोधन का प्रस्ताव पेश किया।
इन लोगों का कहना था कि सिविल मामलों में हर शख्स को अपने धर्म के मुताबिक आचरण करने की छूट होनी चाहिए। किसी भी वर्ग या समुदाय के लोगों को अपना निजी कानून छोड़ने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। केएम मुंशी और अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर ने समान संहिता के पक्ष में दलील दी थी।
संविधान निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले डॉ. बीआर आंबेडकर भी समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) के समर्थन में थे। आंबेडकर का तर्क था कि देश में महिलाओं को समानता का अधिकार दिलाने के लिहाज से धार्मिक आधार पर बने नियमों में सुधार बेहद जरूरी है। आजाद भारत में महिलाओं की स्वतंत्रता और समानता के लिए आंबेडकर ने समान नागरिक संहिता को बेहद जरूरी बताया था। बाद में इसे नीति निर्देशक तत्त्व के अन्दर शामिल कर उस वक्त राज्य को हर कीमत पर लागू करने की संवैधानिक बाध्यता से बचा लिया गया।
हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख के लिए बने कानून
मुस्लिम नेताओं के भारी विरोध के कारण देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू समान नागरिक संहिता पर आगे नहीं बढ़े। हालांकि 1954-55 में भारी विरोध के बावजूद हिंदू कोड बिल लेकर आए। हिंदू विवाह कानून 1955, हिंदू उत्तराधिकार कानून 1956, हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण पोषण कानून 1956 और हिंदू अवयस्कता और संरक्षकता कानून 1956 लागू हुए। इससे हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख समुदायों के लिए शादी, तलाक, उत्तराधिकार, गोद लेने जैसे नियम संसद में बने कानून से तय होने लगे। लेकिन मुस्लिम, ईसाई और पारसियों को अपने अपने धार्मिक कानून के हिसाब से शादी, तलाक, उत्तराधिकार जैसे मुद्दे को तय करने की छूट बरकरार रही।
यूनिफॉर्म सिविल कोड के पक्ष में तर्क (Arguments in favor of Uniform Civil Code)
इस कोड के पक्षधर लोगों का कहना है कि संविधान की प्रस्तावना में शामिल समानता और बंधुत्व का आदर्श तभी पाया जा सकता है, जब देश में हर नागरिक के लिए एक समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) हो। 42वें संविधान संशोधन के जरिए भारतीय संविधान की प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया। इसके तहत सरकार किसी भी धर्म का समर्थन नहीं करेगी।
कोड के पक्ष में दलील दी जाती है कि धार्मिक आधार पर पर्सनल लॉ होने की वजह से संविधान के पंथनिरपेक्ष की भावना का उल्लंघन होता है। संहिता के हिमायती यह मानते हैं कि हर नागरिक को अनुच्छेद 14 (Artical 14) के तहत कानून के समक्ष समानता का अधिकार, अनुच्छेद 15 (Artical 15) में धर्म, जाति, लिंग के आधार पर भेदभाव की मनाही और अनुच्छेद 21 (Artical 21) के तहत जीवन और निजता के संरक्षण का अधिकार मिला हुआ है।
उनकी दलील है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड (UCC) के अभाव में महिलाओं के मूल अधिकार का हनन हो रहा है। शादी, तलाक, उत्तराधिकार जैसे मुद्दों पर एक समान कानून नहीं होने से महिलाओं के प्रति भेदभाव हो रहा है। इन लोगों का तर्क है कि लैंगिक समानता और सामाजिक समानता के लिए समान नागरिक संहिता होनी ही चाहिए।
पक्ष में तर्क देने वाले लोगों का कहना है कि मुस्लिम समाज में महिलाएं धर्म के आधार पर चल रहे पर्सनल लॉ की वजह से हिंसा और भेदभाव का शिकार हो रही है। इन महिलाओं को बहुविवाह और हलाला जैसी प्रथाओं का दंश झेलना पड़ रहा है।
यूनिफॉर्म सिविल कोड के विरोध में तर्क (Arguments Against Uniform Civil Code)
अल्पसंख्यक समुदाय के लोग यूनिफॉर्म सिविल कोड (UCC) का खुलकर विरोध करते आए हैं। आजादी के बाद से ही मुस्लिम समाज इसे उनके निजी जीवन में दखल का मुद्दा मानता रहा है। विरोध में तर्क देने वाले लोगों का कहना है कि संविधान के मौलिक अधिकार के तहत अनुच्छेद 25 से 28 (Artical 25 to 28) के बीच हर शख्स को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार मिला हुआ है। इसलिए हर धर्म के लोगों पर एक समान पर्सनल लॉ थोपना संविधान के साथ खिलवाड़ करना है।
मुस्लिम इसे उनके धार्मिक मामलों में दखल मानते हैं। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) हमेशा से Uniform Civil Code (यूनिफॉर्म सिविल कोड) को असंवैधानिक और अल्पसंख्यक विरोधी बताता रहा है। ये बोर्ड दलील देता है कि संविधान हर नागरिक को अपने धर्म के मुताबिक जीने की अनुमति देता है। इसी अधिकार की वजह से अल्पसंख्यकों और आदिवासी वर्गों को अपने रीति रिवाज, आस्था और परंपरा के मुताबिक अलग पर्सनल लॉ के पालन करने की छूट है।
बोर्ड का तर्क है कि संविधान के अनुच्छेद 371 (A-J)(Artical 371) में देश के आदिवासियों को अपनी संस्कृति के संरक्षण का अधिकार हासिल है। अगर हर किसी के लिए समान कानून लागू किया जाएगा तो देश के अल्पसंख्यक समुदाय और आदिवासियों की संस्कृति पर असर पड़ेगा।
आम सहमति बनाने की है जरूरत
समान नागरिक संहिता (UCC) के रास्ते में वोट बैंक की राजनीति एक बड़ी बाधा रही है। भारत में इस पर आम सहमति बनाने की जरूरत है। मुस्लिम वोट बैंक के नुकसान के डर से शुरू से राजनैतिक दल कभी खुलकर इसके पक्ष में नहीं बोलते है।
कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा था कि राजनीतिक हथकंडा बनाने की बजाय केंद्र सरकार को इस पर गंभीरता से सहमति बनाने की कोशिश करनी चाहिए। देश में इसे लागू करने के लिए संविधान में संशोधन की जरूरत होगी। बीजेपी को संसद से इसे कानून बनाने के रास्ते में आने वाली अड़चनों का अहसास है। वो चाहती है कि धीरे धीरे इस मसले पर लोग आगे आएं और इस पर बहस करें। उसके बाद ही संसद में पूरे देश के लिए एक समान नागरिक संहिता (UCC) बनाने की पहल की जाए