जैसा कि हम जानते हैं की संघ की कार्य पद्धति का एक हिस्सा हमारे उत्सव है, हमारी कार्य पद्धति के दो हिस्से है नित्य और नेमित्तिक। नित्य में कार्यपद्धति का केंद्रबिंदु है दिन प्रतिदिन का एकत्रीकरण यानी की शाखा। सामूहिक कार्यक्रम से सामुहिक मन का निर्माण होता है, समष्टीगत कार्यक्रम से समष्टीगत मन बनता है। इस् मानोविज्ञान के आधार पर सामुहिक कार्यक्रम के माध्यम से संपूर्ण समाज के साथ एकात्मा का संस्कार हरदे पर अंकित करना, यह पहला हिस्सा है। दूसरा है नामत्तिक कार्यक्रम इसमें है अनियमित रूप से होने वाले कार्यक्रम बैठक वनसंचार आदि और नियमित ओर नामित्तिक कार्यक्रम के है
ये उत्सव हिंदू समाज के परंपरागत उत्सव है संघ कोई संस्था, दल या कोई पंथ नही है।
यह हिंदू समाज के अन्दर खडा किया गया कोई संगठन भी नही है अपितु यह संपूर्ण हिंदु समाज को सुसंगठित रूप में लाना चाहता है, इस दृष्टि से संघ और समाज संव्याप्त है, संघ सम्पूर्ण हिंदू समाज के साथ एकात्म है।
संघ (RSS) के सिद्धांत कौन से है?
वही जो परंपरागत रूप से हिंदू राष्ट्र के हैं। इसी प्रकार संघ के उत्सव भी हिंदू राष्ट्र के परंपरागत उत्सवो में से कुछ चुन लिए गए है, कुछ उत्सव को चुनना – इसका भाव भी संस्कारो का है। उत्सव तो हिंदू समाज में बहुत है। देवगिरी याद व महाराज (1259 – 1271) में उनके प्रधानमंत्री हेमाद्रि पंडित जी ने चतुर्वर्ग चिंतामणि नामक अपनी पुस्तक में लगभग 2000 वर्त और त्यौहार का वर्णन किया है।
संघ में गुरु व्यक्ति न होकर तत्व है। इसके पीछे भी डॉक्टर साहब का गहन चिंतन था व्यक्ति के जीवन में फिसलन कभी भी आ सकती है इसके प्राचीन और कई नवीन उदाहरण भी है। इसलिए संपूर्ण विश्व में हमारे जिन महा पुरुषो की मान्यता है जिनसे हम सब प्रेरणा लेते हैं । उन महापुरूषों ने जिन तत्वों के आधार पर अपना जीवन जीया के तत्व ही हमारे गुरु है। जिस रंग के ध्वज ने आज तक का इस देश का इतिहास लिखा। जिसका उल्लेख वेदों में भी मिलता है। अग्नि की ज्वाला के समान भगवा ध्वज, वही हमारा गुरु है। जिसने भी इस देश के लिए अपना जीवन दांव पर लगाया अथक परिश्रम किया वो इसी ध्वज के नीचे ही किया है। यह भारत की चिरकालीन सनातन परंपरा का प्रतीक है यह प्रतीक है उस ज्वाला का जिसमे समस्त अनिष्ट और अहितकारी बातो का होम कर दिया जाता है यह प्रतीक है उस सभ्यता का जो सास्वत है अनंत है, इसीलिए डॉक्टर साहब ने इसे गुरु रूप में स्वीकार किया इसी को हम गुरु रूप मान कर पूजा करते है, इसी के समक्ष हम समर्पण करते है, समर्पण किसी भी रूप में हो यह दान नही, उपकार नही, स्वमसेवको का पवित्र कर्तव्य है।
भगवा ध्वज दीर्घ काल से हमारे इतिहास का साक्षी रहा है, इसमें हमारे पूर्वजों ऋषि मुनियो ओर माताओं के तप की कहानियां छिपी हुई है। यही हमारे गुरु हैं, प्रेरक है, मार्गदर्शक है इसलिए कहा गया हैं।
अस्तो मां सदगमय।
तमसो मां ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय।
जो असत्य से सत्य की ओर ले जाए, जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए, जो मृतयू से अमृतव की और ले जाए। उस तत्व का नाम गुरु है, जो ब्रह्मा की तरह हमारे अंदर सद्गगुणों का निर्माण करे, जो विष्णु की तरह हमारे गुणों का पोषण करे, जो शिव की तरह हमारे अवगुणों का विकास करे।
जैन धर्म में आचार्य की परंपरा है, बोध धर्म में तथागत की, ओर सिख धर्म में गुरु की परंपरा श्रेष्ठ समाज के निर्माण के लिए ही है, उपनिषद तो गुरु-शिष्य परंपरा का सुंदर उदाहरण है।
भारत की जीवन दृष्टि
भारत की जीवन दृष्टि आध्यात्मिक है उपनिषद में कहा है:-
“ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।”
जड़ चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्यप्त है, मनुष्य इसके पदार्थो का आवश्यकता अनुसार भोग करे,परंतु यह सब मेरा नही है, के भाव से उनका संग्रह करे। इसलिये अपरिग्रह पर जोर दिया गया है। हमारे यहा त्याग का महत्व है, देने का महत्व है, यह किसी रूप में भी हो सकता है। आचार्य चाणक्य ने कहा है:-
“त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्॥”
अर्थात कुल के लिए व्यक्ति का त्याग करे, ग्राम के लिए कुल का त्याग करे, राज्य के लिए ग्राम का त्याग करे, ओर आत्मा के लिए धरती का।” जब व्यक्ति समाज के साथ एकात्म होता है, तब यह भाव आता है की हम सब एक ही मां की संताने है। खानदान बोली भाषा वेश भूषा में विभिनताएं हो सकती है। वेदों मे कहा गया है “एकोऽहं बहुस्याम्” ब्रह्म एक था उसकी एक होने से अनेक होने की इच्छा हुई ओर तब सृष्टि का निर्माण हुआ किंतु अनेक होने के बाद भी एकत्व में कोई अंतर नही पड़ा। ओर एक ही आत्म चैतन्य से ये सृष्टि प्रकट हुई। दिखने में हम अलग अलग हो सकते परंतु हम चैतन्य के अंश है, हम परस्पर जुड़े हुए है, परस्परलंबी है।
जब हम कहते है। “मैं” तो, “मैं” यानी केवल शरीर मन बुद्धि ही नही है, “मैं” का ही विस्तृत रूप हैं इस चराचर जगत को व्यप्त करने वाला चैतन्य।
“अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पादं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥”
जो अखंड है सकल ब्रह्मांड में समाया हुआ है चर अचर में तरंगित है। इसलिए हम कहते है, मनुष्य विस्तरित रूप से परिवार है, परिवार का विस्तरित रूप समाज है, समाज का विस्तृत रूप राष्ट्र है, राष्ट्र का विस्तरित रूप संपूर्ण सृष्टि है।
“व्यष्टि, से समष्टि से सृष्टि से परमेष्ठी।”
ऐसा जब होता है तो मन में भाव आता है की मैं अलग नही, प्रथक नही, स्वतंत्र नही। मैं राष्ट रूपी शरीर का एक अंग मात्र हु। मुझे भी इसके लिए काम करना चाहिए। पिछले दिनों करोना संकट के दौरान हमने देखा किस परकार डॉक्टरों, नर्सों, स्वच्छताकर्मी और हमारे दवाई के विक्रेताओं ने अपने प्राणों को संकट में डाल कर कार्य किया। इसके लिए उनको कोई अलग से पारिश्रमिक नही मिला। बस मन में ये भाव था की यह मेरा समाज है मुझे इसके लिए कुछ करना है ऐसा समाज एक दिन में तयार नही होता ऐसा समाज गड़ने में पीढ़ियां लग जाती है।
व्यक्तिगत और राष्ट्रीय चरित्र
हर व्यक्ति का व्यक्तिगत चरित्र तो उज्जवल होना ही चाहिए, पर उसके राष्ट्रीय चरित्र के उज्जवल होने का महत्त्व उससे भी अधिक है। इस संबंध में श्री गुरुजी गुजरात का एक उदाहरण सुनाते थे।
गुजरात के एक राज्य में राजा कर्ण के प्रधानमंत्री बहुत विद्वान एवं कलामर्मज्ञ थे। एक बार राजा ने अपने राज्य के एक वरिष्ठ सरदार की पत्नी का अपहरण कर लिया। प्रधानमंत्री ने राजा को उसकी गलती समझाने का प्रयास किया, पर न मानने पर वह क्रोधित हो गया। उसने राजा को दंड देने की प्रतिज्ञा की। प्रधानमंत्री ने क्रोध में अपना विवेक खो दिया। उसने दिल्ली के मुगल सुल्तान से सम्पर्क कर उन्हें अपने ही राज्य पर आक्रमण करने को उकसाया। मुगल सुल्तान को और क्या चाहिए था। उसने धावा बोला और राजा कर्ण की पराजय हुई। प्रधानमंत्री की प्रतिज्ञा पूरी हुई।
पर इसके बाद क्या हुआ ? मुगलों ने राज्य में कत्लेआम मचा दिया। मंदिरों को तोड़ा, महिलाओं को अपमानित किया, गायों को काटा, हजारों स्त्री, पुरुष और बच्चों को आग में झोंक दिया, जिनमें उस प्रधानमंत्री के परिवारजन भी शामिल थे। इसके बाद भी वह सुल्तान वापस नहीं गया। उसने सैकड़ों साल तक उस राज्य को अपने अधीन रखा। इतना ही नहीं, वहाँ पैर जमाने के बाद उसने दक्षिण के अन्य राज्यों पर भी हमला बोला और वहाँ भी इसी प्रकार हिन्दुओं को अपमानित होना पड़ा।
यह घटना बताती है कि राजा का राष्ट्रीय चरित्र तो ठीक था, पर निजी चरित्र नहीं। दूसरी ओर प्रधानमंत्री का निजी चरित्र ठीक था, पर राष्ट्रीय चरित्र के अभाव में उसके राज्य को मुगलों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी।
भाव
एक मन्दिर था ।
उसमें सभी लोग पगार पर थे। आरती वाला, पूजा कराने वाला आदमी, घण्टा बजाने वाला भी पगार पर था।
घण्टा बजाने वाला आदमी आरती के समय, भाव के साथ इतना मसगुल हो जाता था कि होश में ही नहीं रहता था। घण्टा बजाने वाला व्यक्ति पूरे भक्ति भाव से खुद का काम करता था। मन्दिर में आने वाले सभी व्यक्ति भगवान के साथ साथ घण्टा बजाने वाले व्यक्ति के भाव के भी दर्शन करते थे। उसकी भी वाह वाह होती थी।
एक दिन मन्दिर का ट्रस्ट बदल गया, और नये ट्रस्टी ने ऐसा आदेश जारी किया कि अपने मन्दिर में काम करते सब लोग पढ़े लिखे होना जरूरी है। जो पढ़े लिखें नही है, उन्हें निकाल दिया जाएगा। उस घण्टा बजाने वाले भाई को ट्रस्टी ने कहा कि ‘तुम्हारी आज तक का पगार ले लो। कल से तुम नौकरी पर मत आना।’
उस घण्टा बजाने वाले व्यक्ति ने कहा, “साहेब भले मैं पढ़ा लिखा नही हूं, परन्तु इस कार्य में मेरा भाव भगवान से जुड़ा हुआ है, देखो!” ट्रस्टी ने कहा,”सुन लो तुम पढ़े लिखे नही हो, इसलिए तुम्हे रखने में नही आएगा…” दूसरे दिन मन्दिर में नये लोगो को रखने में आया। परन्तु आरती में आये लोगो को अब पहले जैसा मजा नहीं आता था। घण्टा बजाने वाले व्यक्ति की सभी को कमी महसूस होती थी। कुछ लोग मिलकर घण्टा बजाने वाले व्यक्ति के घर गए, और विनती करी तुम मन्दिर आओ। उस भाई ने जवाब दिया, “मैं आऊंगा तो ट्रस्टी को लगेगा कि मैं नौकरी लेने के लिए आया है। इसलिए मैं नहीं आ सकता।”
वहा आये हुए लोगो ने एक उपाय बताया कि ‘मन्दिर के बराबर सामने आपके लिए एक दुकान खोल के देते है। वहाँ आपको बैठना है और आरती के समय घण्टा बजाने आ जाना, फिर कोई नहीं कहेगा तुमको नौकरी की जरूरत है …”
उस भाई ने मन्दिर के सामने दुकान शुरू की और वो इतनी चली कि एक दुकान से सात दुकान और सात दुकानो से एक फैक्ट्री खोली।
अब वो आदमी मर्सिडीज़ से घण्टा बजाने आता था। समय बीतता गया। ये बात पुरानी सी हो गयी। मन्दिर का ट्रस्टी फिर बदल गया नये ट्रस्ट को नया मन्दिर बनाने के लिए दान की जरूरत थी मन्दिर के नये ट्रस्टी को विचार आया कि सबसे पहले उस फैक्ट्री के मालिक से बात करके देखते है ..
ट्रस्टी मालिक के पास गया। सात लाख का खर्चा है, फैक्ट्री मालिक को बताया। फैक्ट्री के मालिक ने कोई सवाल किये बिना एक खाली चेक ट्रस्टी के हाथ में दे दिया और कहा चैक भर लो ट्रस्टी ने चैक भरकर उस फैक्ट्री मालिक को वापस दिया । फैक्ट्री मालिक ने चैक को देखा और उस ट्रस्टी को दे दिया।
ट्रस्टी ने चैक हाथ में लिया और कहा सिग्नेचर तो बाकी है मालिक ने कहा मुझे सिग्नेचर करना नंही आता है लाओ अंगुठा मार देता हुँ, “वही चलेगा …” ये सुनकर ट्रस्टी चौक गया और कहा, “साहेब तुमने अनपढ़ होकर भी इतनी तरक्की की, यदि पढे लिखे होते तो कहाँ होते …!!!”
तो वह सेठ हँसते हुए बोला,
“भाई, मैं पढ़ा लिखा होता तो बस मन्दिर में घण्टा बजा रहा होता”
सारांश:
कार्य कोई भी हो, परिस्थिति कैसी भी हो, तुम्हारी काबिलियत तुम्हारी भावनाओ पर निर्भर करती है। भावनायें शुद्ध होगी, कर्म सत्यमार्ग पर होगा तो ईश्वर और सुंदर भविष्य पक्का तुम्हारा साथ देगा ।
मन उज्ज्वल रखें, ईश्वर सदैव साथ रहेगा।
जो प्राप्त है-पर्याप्त है
जिसका मन मस्त है
उसके पास समस्त है!!