Maharshi Valmiki Jayanti 2023 | महर्षि वाल्मीकि जयंती कब और क्यों मनाई जाती है?

Ishwar Chand
13 Min Read

महर्षि वाल्मीकि जयंती 2023 (Maharshi Valmiki Jayanti 2023)

वर्ष 2023 में महर्षि वाल्मीकि जयंती (Maharshi Valmiki Jayanti 2023) का पर्व 28 अक्टूबर, शनिवार के दिन मनाया जायेगा।

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Maharshi Valmiki

महर्षि वाल्मीकि जयंती (Maharshi Valmiki Jayanti 2023) का महत्व

वाल्मीकि जयंती महान लेखक और ऋषि महर्षि वाल्मीकि की जयंती (Maharshi Valmiki Jayanti 2023) के रूप में मनाई जाती है। उन्होंने संस्कृत मे रामायण की रचना की साथ ही संस्कृत साहित्य के पहले कवि भी हैं। महर्षि वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) द्वारा रची रामायण वाल्मीकि रामायण कहलाई।

रामायण एक महाकाव्य है जो कि श्री राम के जीवन के माध्यम से हमें जीवन के सत्य व कर्तव्य से, परिचित करवाता है। आदिकवि शब्द ‘आदि’ और ‘कवि’ के मेल से बना है। ‘आदि’ का अर्थ होता है ‘प्रथम’ और ‘कवि’ का अर्थ होता है ‘काव्य का रचयिता’। वाल्मीकि जयंती का उत्सव एक महान संत को श्रद्धांजलि है जिन्होंने अपनी सीमाओं पर काबू पाया और अपनी शिक्षाओं के माध्यम से जनता को सामाजिक न्याय के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया।

उन्होंने भगवान राम के मूल्यों को बढ़ावा दिया और उन्हें तपस्या और परोपकार के व्यक्ति के रूप में स्वीकार किया। वाल्मीकि ने संस्कृत के प्रथम महाकाव्य की रचना की थी जो रामायण के नाम से प्रसिद्ध है। महर्षि वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) उन विश्वकवियों में अग्रणी हैं, जिनकी कविता एक देश – विशेष के ही मनुष्यों का मंगल – विधान नहीं करती और न ही किसी कालविशेष के प्राणियों का मनोरंजन करती है। रामायण सार्वदेशिक और सर्वकालिक है। वह चिरपुराण है और चिरनूतन भी। रामायण एक धर्मशास्त्र है, महाकाव्य है और एक इतिहासग्रन्थ भी है।

डाकू से महर्षि वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) बनने की कथा

महर्षि वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) के आरम्भिक जीवन के सम्बन्ध में एक किंवदन्ती बहुत प्रसिद्ध है। ये वनप्रान्त में निवास करनेवाले एक लुटेरे थे। यात्रियों को लूटकर जो धन प्राप्त करते थे, उसीसे अपने परिवार का भरण – पोषण करते थे। उनका नाम ‘रत्नाकर’ कहा जाता है। एक दिन क्रूर रत्नाकर ने कुछ संन्यासियों को लूटने की नीयत से पकड़ा। संन्यासियों ने कहा – ‘अरे भले आदमी, हमारे पास तो कोई धन – दौलत नहीं है, किंतु यह बताओ कि जिस पापकर्म के द्वारा तुम अपने परिवार का पोषण करते तुम्हारे इस पाप के भागी होंगे ?’

रत्नाकर ने कहा कि यह तो मुझे नहीं मालूम। तुम लोग रुको, मैं अपने परिवार से पूछकर बताता हूँ। ऐसा कहकर और उन लोगों को बाँधकर (कि कहीं वे लोग भाग न जायँ) वे अपने परिवार से उस प्रश्न का उत्तर पूछने चले गये। परिवारवालों ने कहा कि हमारे पालन का दायित्व आप पर है। आप इसे कैसे करते हैं- इससे हमें कोई मतलब नहीं। आपके द्वारा किये गये पाप या पुण्य से हमें कुछ भी लेना – देना नहीं है। पाप का भागी हम क्यों बनें? रत्नाकर की आँखें खुल गयीं।

वह भागा – भागा उन संन्यासियों के पास आया और उनके एक बन्धन खोलकर पैरों में गिर पड़ा, आर्तस्वर में बोला ‘मेरा उद्धार कीजिये। मैंने बहुत पाप किये हैं।’ संन्यासियों ने उसे करुणापूर्वक उठाया और उपदेश वह दिया- ‘राम – राम जपो।’ किंतु हीनवृत्ति का होने के कारण वह ‘राम – राम का उच्चारण न कर सका।

तब उन्होंने उसे ‘मरा – मरा’ कहने का उपदेश दिया। यह उच्चारण के उसके लिये सहज था। उसने निरन्तर ‘मरा – मरा’ का उच्चारण आरम्भ किया, निरन्तर गति से उच्चारण करने में ‘मरा’, ‘राम’ ही हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदास ने इसी ओर संकेत किया है।

“उलटा नामु जपत जगु जाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना॥”

संन्यासीगण उपदेश देकर चले गये और इधर वह लुटेरा रत्नाकर परिवार का माया – मोह छोड़कर, एक आसन से बैठकर ‘मरा – मरा’ अर्थात् ‘राम – राम’ का निरन्तर जप करते हुए एकाग्रचित्तता के कारण समाधिस्थ हो गया। उसे जडवत् पृथ्वी पर बैठे हुए पाकर दीमकों ने अपनी बाँबी की मिट्टी से ढँक दिया। सिद्ध होकर समाधि से उठने पर उसने अपने को दीमकों द्वारा मिट्टी से ढँका हुआ पाया। फिर तो वही महर्षि वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) के नाम से प्रसिद्ध हुआ (वाल्मीकि का अर्थ होता है दीमकों की बाँबी या मिट्टी का ढेर)।

रामायण की रचना

महर्षि वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) आदि महाकाव्य ‘रामायण’ के प्रणेता हैं। इसके साथ ही वे रामकथा के एक विशिष्ट और महनीय पात्र भी हैं। रामायण के अध्येता इस रामकथा में आदि से अन्त तक महर्षि वाल्मीकि की उपस्थिति का अनुभव करते हैं और यथावसर महर्षि वाल्मीकि अपनी सक्रिय भूमिका भी निभाते हैं ।

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शुद्ध अन्तःकरण वाले सिद्ध महर्षि वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) आश्रम बनाकर शिष्यों सहित भगवती भागीरथी (गंगा) – से नातिदूर तमसा नदी के तटपर निवास करते थे। एक दिन देवर्षि नारद भ्रमण करते हुए उनके आश्रम पर पधारे। महर्षि वाल्मीकि ने देवर्षि का यथाविधि पूजन सत्कार किया। फिर दैव – प्रेरणा से उनके मन में एक जिज्ञासा उत्पन्न हुई और उन तपस्वी वाल्मीकि ने लोक और शास्त्र में पारंगत विद्वद्वरेण्य देवर्षि नारदसे से पूछा – ‘भगवन्! इस समय संसार में गुणवान्, वीर्यवान्, धर्मज्ञ, कृतज्ञ, सत्यवादी और दृढ़संकल्प वाला कौन है? वह कौन पुरुष है, जो सदाचार परायण, सभी व जीवों का हितसाधक, विद्वान्, सामर्थ्यशाली और एकमात्र प्रियदर्शन अर्थात् सर्वसुन्दर है?

मन को वश में रखनेवाला, क्रोध को जीतनेवाला, कान्तिमान्, किसी की भी निन्दा न करनेवाला – वह कौन है? युद्ध में कुपित होनेपर देवता भी जिससे डरते हैं? हे महामुने! ऐसे (इन गुणों से युक्त) व्यक्ति को जानने के लिये मेरे मन में तीव्र अभिलाषा है। आप ऐसे पुरुष को अवश्य जानते होंगे (क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं)। अतः मुझे बतलाने की कृपा करें।”

Maharshi Valmiki

महर्षि वाल्मीकिके इस वचन (प्रश्न) को सुनकर त्रिलोक देवर्षि नारद ने कहा कि है महर्ष। आपने जिन दुर्लभ गुणों से युक्त पुरुष को जानने की अभिलाषा व्यक्त की है, वे इक्ष्वाकुवंश मै उत्पन्न पुरुष हैं, जो राम के नाम से लोकविख्यात हैं। तत्पश्चात् देवर्षि नारद ने महर्षि वाल्मीकि के सम्मुख श्रीराम के पावन चरित्र और चरित का विस्तारपूर्वक वर्णन किया। ऐसे महापुरुष के सम्बन्ध में जानकर महर्षि वाल्मीकि बहुत प्रसन्न हुए। देवर्षि नारद ने उन्हें श्रीराम का पूरा जीवन – चरित ही सुना डाला।

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महर्षि वाल्मीकि ने देवर्षि नारद का अपने शिष्यों सहित श्रद्धापूर्वक पूजन किया। उसी दिन कुछ समय पश्चात् महर्षि वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) अपने दैनन्दिन क्रम में स्नान के लिये पवित्र तमसा नदी के तटपर गये, जो उनके आश्रम के समीप ही था। उनके साथ भरद्वाज नामक शिष्य थे। तमसा का निर्मल जल और स्वच्छ तट देखकर महर्षि ने शिष्य भरद्वाज से वल्कल वस्त्र ले लिये तथा प्रान्तवर्ती वन की शोभा का अवलोकन करते हुए स्नानार्थ जल में प्रवेश करनेवाले ही थे कि उन्होंने वहाँ क्रीडारत क्रौंचपक्षी का एक जोड़ा देखा।

उसी समय एक व्याधने निशाना साधकर उसमें से एक पक्षी का वध कर दिया, जिससे शोकार्त क्राँची करुण-कंद्रण करने लगी। यह कारुणिक दृश्य देखकर महर्षि का हृदय द्रवित हो उठा और उनके मुख से उस व्याध के लिये शाप भरे ये शब्द सहसा ही फूट पड़े’-

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥

अर्थात्, रे व्याध! तुझे आगे आनेवाले नित्य निरन्तर दिनों – में कभी शान्ति न मिले, क्योंकि तूने क्रौंच के इस जोड़े में से काम मोहित एक पक्षी का अकारण वध कर दिया, वह अदण्ड्य था।

अपने मुख से निकले वाक्य के सम्बन्ध में तत्काल ही ध्यान आने पर वे सोचने लगे कि ‘अरे, इस पक्षी के शोक से पीड़ित होकर मैंने यह क्या कह डाला!’ ऐसा विचार करते हुए महर्षि वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) के मन में एक निश्चय हुआ और उन्होंने वहाँ अपने शिष्य भरद्वाज से कहा ‘वत्स, शोक से पीड़ित हुए मेरे मुख से जो वाक्य निकल पड़ा है, वह चार चरणों में आबद्ध है। इसे वीणा के लयपर गाया भी जा सकता है, अतः मेरा यह वचन श्लोकरूप होना चाहिये।’ गुरु के मुख से यह सुनकर समर्थन करते हुए शिष्य मुनि भरद्वाज बोले – ‘हाँ, आपका यह वाक्य निश्चय ही श्लोकरूपता को प्राप्त करता है।’

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स्नान करके महर्षि वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) आश्रम में आये थे कि। सृष्टि के निर्माता चतुर्मुख ब्रह्मा जी वहाँ पधारे। वाल्मीकि उन्हें देखते ही उनके सम्मुख हाथ जोड़कर खड़े हो गये। तत्पश्चात् पाद्य, अर्घ्य, आसन प्रदान करके स्तुति पूर्वक उनकी सपर्या की तथा उनके चरणों में प्रणाम किया। भगवान् ब्रह्मा स्वयं आसन पर बैठे और महर्षि को बैठने के लिये कहा। यह सब करते हुए भी महर्षि वाल्मीकि के चित्त में क्रौंच पक्षी वाली दुर्घटना और उनके मुँह से सहसा निकला हुआ वह शाप ही घूम रहा था। ब्रह्माजी उनकी मनःस्थिति को जानकर बोले – ‘ब्रह्मन्! तुम्हारा वह वचन छन्दोबद्ध श्लोक ही है। तुम्हारे माध्यम से यह छन्दोमयी वाणी का नवावतार है।

ऐसा मेरी प्रेरणा से ही सम्भव हुआ है। तुमने देवर्षि नारद के मुख से जिन श्रीराम का चरित सुना है, उनका वर्णन इसी छन्दोमयी वाणी में करो। ऐसा करते हुए तुम्हें मेरे प्रभाव से श्रीराम के लोकपावन गुप्तचरित भी प्रकट हो जायँगे। इस काव्य में अंकित कोई भी बात झूठी नहीं होगी। तुम्हारे द्वारा कही गयी यह रामकथा लोक में सदा अक्षुण्ण रहेगी। तुम्हारी यह रामायण ‘आदिकाव्य’ कही जायगी और तुम भी ‘आदिकवि’ कहे जाओगे।’ ऐसा कहकर ब्रह्माजी अन्तर्धान हो गये और महर्षि वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) ने रामायण का प्रणयन किया।

रामकथा के प्रणयन के माध्यम से महर्षि वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) ने मानवजाति पर अनन्त उपकार किया है। आश्विनमास की पूर्णिमा – तिथि को उनकी जयन्ती पर हम उन आदिकवि का श्रद्धापूर्वक पावन स्मारण करते हैं।

वाल्मीकि जी के जीवन से सीखने को मिलता है की अगर ज्ञान के अभाव में चाहे हमसे गलती हो जाये लेकिन ज्ञान होते ही हमें अपना मार्ग बदल देना चाहिए। असत्य से सत्य के मार्ग पर चल कर और तप के बल पर सारे बुरे कर्म उस अँधेरे की तरह मिट जाते है जो सूरज के आने पर रौशनी में बदल जाते है। रामायण में किये गए सूर्य, चन्द्रमा तथा नक्षत्रों की सटीक गणना से ये भी पता चलता है की वे खगोल विद्या और ज्योतिष विद्या के भी जानकर थे।

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